Monday, February 7, 2011

परमार्थ समर का महाप्राण

वसंत पंचमी/निराला जयंती पर विशेष
 -रणविजय सिंह सत्यकेतु

महाकवि निराला और वसंत एक-दूसरे के पर्याय हैं। भाव के धरातल पर दोनों की प्रकृति एक है। जिस तरह वसंत प्रकृति के कण-कण में नवोन्मेष का संचार करती है, उसी तरह निराला प्रकृति के हर अंग को नवल और गतिमान देखने के आकांक्षी हैं। निराला के व्यक्तित्व में वसंत सा फक्कड़पन, उमंग और उल्लास का वास रहा। वसंत ऋतु में धरती फूलों से सजी-सँवरी और खिली-खिली नजर आती है। निराला को फूल और खासकर सुगंधित फूल बेहद पसंद थे। वह फूल के खिलने को क्रांतिकारी बदलाव का सूचक मानते थे। उनकी हमेशा चाह रही कि मानव मन में समरसता के फूल खिले ताकि सामाजिक विद्रूपताओं के कांटे टूट-बिखर जाएं। अपने उत्कर्ष के दिनों में ही नहीं, जीवन के कठिन दिनों में भी वह देश और समाज के हित में नए छंद और नए मंत्र के संधान में लगे रहे। निराला की यही चाह, यही भावना उन्हें वसंत के समकक्ष खड़ा करती है।
वासंतिक भावों के आकांक्षी निराला समाज हित में सरस्वती की कृपा की कामना करते हैं। सरस्वती ज्ञान और बुद्धि की देवी हैं। ज्ञान के संचार से ही सोच में नयापन आएगा, समाज में परिवर्तन का स्वर गूँजेगा। इसलिए वह सरस्वती से मनुष्य के अंदर के अज्ञानरूपी अंधकार को काटने का आवाहन करते हैं ताकि जाति-धर्म का भेद खत्म हो और व्यक्ति-व्यक्ति के अंदर औदात्य निखर उठे। ज्ञान से ही व्यवहार सुधरता है और व्यवहार में सुधार से ही समाज में समरसता आती है इसलिए निराला ज्ञान की देवी सरस्वती की साधना करते हैं। इतना ही नहीं, वह अपना जन्मदिन भी सरस्वती को समर्पित कर देते हैं। सृजन की अधिष्ठात्री सरस्वती का वरदहस्त और प्राणवंत ऊर्जा की ऋतु वसंत का कवच प्राप्त परमार्थ समर का यह योद्धा खुद को महाप्राण में बदल देता है। बाबा नागार्जुन कहते हैं,
हे नीलकंठ, चुपचाप युग की पीड़ा पी रहे
बस नई सृष्टि की लालसा लिए कथंचित जी रहे। (हे कविकुलगुरु, हे सन्यासी)
वसंत को प्रेम करने का अर्थ है सौंदर्य को प्रेम करना और सरस्वती की आराधना का अर्थ है रस की आराधना। महाकवि निराला की रचनाएँ इसी सौंदर्यानुभूति और रस की आराधना से अभिसिक्त हैं। वसंत का हर्षोल्लास माला की तरह गूंथा हुआ होता है। यह धरती से मानव मन तक फैलता चला जाता है। कोयल की कूक से बाग-बगीचे बौरा जाते हैं। स्वर की मादकता से अंतस के भीतर अनहद नाद बज उठता है-
कुंज-कुंज कोयल बोली है,
स्वर की मादकता घोली है।
सौंदर्य प्रेमी निराला ने कभी धरती का दामन नहीं छोड़ा। वह धरती को ही स्वर्ग स्वीकारते हैं क्योंकि यहां वसंत का प्रवाह है जो धरती के भीतर की आग को रंग-बि२ंगी प्रकृति में बदल देता है। वसंत की हवा बहती है तो नर्गिस की मंद सुगंध धरती को नवयौवना की तरह सुवासित कर जाती है। फिर तो इस धरती पर स्वर्गानुभूति होती है-
युवती धरा का यह था भरा वसंतकाल,
हरे-भरे स्तनों पर खड़ी कलियों की माला।
सौरभ से दिक्कुमारियों का तन सींचकर,
बहता है पवन प्रसन्न तन खींच कर।
वसंत हंसने-खेलने, मिलने-जुलने, सजने-सँवरने और रीझने-मनाने के लिए आता है। गुनगुनी धूप की गर्माहट प्रणय के तारों को झंकृत कर देती है। खेतों में फैली हरियाली और बागों में बसी रागिनी हृदय में नए भावों को जन्म देती है। हर तरफ नव गति, नव लय के छाने से वसंत के दिन बहार के दिन होते हैं।
निराला धरती की इस ताकत को गहराई से पहचानते हैं जो वसंत के माध्यम से परिवेश को आनंद से भर देती है-
सखि, वसंत आया।
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया।
वसंत शरीर और मन को प्यार से सींचने का मौसम है। यह काम परियाँ बहुत ही निपुणता के साथ करती हैं। परियों का अवतरण वातावरण को सुगंधमय बना देता है, जीवन में प्यार भर देता है। इसलिए कवि वसंत की परी को पुकारते हैं-
आओ, आओ फिर, मेरे वसंत की परी छवि-विभावरी
सिहरो, स्वर से भर-भर अंबर की सुंदरी छवि-विभावरी।
निराला की कल्पना महज आकाश की उड़ान नहीं भरती, बल्कि वह बार-बार धरती के सुवास को आकाश पर छाया हुआ देखना चाहते हैं। मिट्टी की इस अदम्य शक्ति का भरोसा ही निराला को ताउम्र अपराजेय बनाए रखता है, उनके सिर को ऊंचा किए रखता है। निराला की इसी अपराजेयता पर रामविलास शर्मा मुग्ध हैं -
यह कवि अपराजेय निराला,
जिसको मिला गरल का प्याला,
ढहा और तन टूट चुका है-
पर जिसका माथा न झुका है।
निराला से निजता कोसों दूर रही। वह हमेशा परमार्थ के लिए जीते रहे। उनका न सिर्फ सौष्ठव दैदीप्यमान था बल्कि उनकी आत्मा भी उदात्त थी। वह एक साथ जीवन के कई रूपों को जीते रहे। दुख और सुख को एक साथ साधते रहे। उन्होंने परम्परा को साधा, नवीनता की राह तलाशी। जीवन के आखिर क्षणों तक वह विचारों की नवीनता के संधान में लगे रहे। नीलकण्ठ की तरह सत्कार और दुत्कार को समभाव से पचाते रहे। समाज और देश, भाषा और साहित्य का हित साधने में निराला प्राणपण से जुटे रहे। दानवीर कर्ण की तरह अपने मन का भी दान कर निराला महाप्राण हो गए। वासंतिक भावों से लबालब ऋषितुल्य निराला की जयकार करते हुए रामवृक्ष बेनीपुरी लिखते हैं-
निराला की जय! मतवाला की जय!
निराला-जिसका तन निराला, जिसका मन निराला,
जिसका रंग निराला, जिसका ढंग निराला!
जिसकी भुजाओं 'में प्रहार है,
जिसकी अँगुलियों में झंकार है;
जो बंधनों को तोड़ता है,
जो धारा को मोड़ता है;
... उसने आकाश की ओर देखा: 
मेघ-मन्द्र बज उठे।
उसकी निगाह नीची हुई:
जुही की कली खिल उठी। (निराला की जय)
वसंत की तरह निराला जीवन का कोना-कोना खंगाल डालने के उपक्रम में लगे रहे। जहां चाहा, वहां रमन किया। न किसी सत्ता की परवाह की न किसी रीति की। एकदम आरंभ की रचना 'जुही की कली' से लेकर जीवन के आखिरी क्षणों तक नए गीत रचने को तत्पर रहे। विरोधों और विरोधियों को धता बताते हुए उनके भीतर का दरिया किसी तटबंध में बंधने को राजी न हुआ। हिन्दी के महारथियों की कूटनीति का शिकार और निरन्तर उपेक्षा का दंश झेलने वाले निराला ने अपनी नाव को फिर भी किसी ठाँव में बंधने नहीं दिया। और यही पराक्रम उन्हें अपराजेय और निष्कलुष बनाए रखा।